न्यूयार्क। रिचर्ड निक्सन के इस्तीफे से पूर्व 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का जिक्र करना आवश्यक है। अगर यह युद्ध नहीं हुआ होता तो निश्चित तौर पर आज जिस तरह के दुनिया के हालात हैं, वह नहीं होते। कहते हैं न कि एक झूठ को छिपाने के लिए 1 हजार या एक लाख या एक करोड़ या इससे कहीं भी ज्यादा झूठ बोलने पड़ते हैं।
इस समाचार को राजनीतिक नजरिये से देखिये। यह राजनीति से प्रेरित नहीं है किंतु उसकी समीक्षा अवश्य करता है।
1974 में वॉटर गेट सामने आया और तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा। निक्सन की विदाई हुई और उनके स्थान पर जो राष्ट्रपति बने गैरी फोर्ड ने क्षमा करते हुए निक्सन के अपराध संबंध कार्यवाही को ड्रॉप कर दिया।
अब रिचर्ड का अपराध क्या था, यह जानना आवश्यक है। 1970 में ही तय हो गया था कि 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े किये जायेंगे। कॉमनवैल्थ की अध्यक्ष ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ ने इसकी मंजूरी प्रदान कर दी थी। इसलिए कागजों में मुक्ति वाहनी आंदोलन चलाया गया, उसी तरह से जैसे कोरोना वायरस से माहौल तैयार किया गया। 1970-80 के दशक में पंजाब में आतंकवाद का दौर चलाया गया। रात के समय ट्रेन को बंद कर दिया गया। जगह-जगह पुलिस नाकाबंदी कर दी गयी। लुट की वारदात को आतंकवाद की वारदात मानकर एनकाउंटर किये गये। आतंकवादियों को किसी ने न देखा। फिर भी आतंकवाद था। जैसा कश्मीर में था।
इसकी जानकारी अमेरिका को थी और अमेरिका को इस बात की भी जानकारी थी कि 1975 में इमरजेंसी लगायेगी भारत सरकार। इस तरह से पूरी जानकारी होने के बावजूद पद का दुरुपयोग निक्सन ने किया। युद्धपोत हिंद महासागर में होने के बावजूद मौके पर नहीं पहुंचाया गया।
भारत सरकार ने उसको भारत में नहीं मिलाया। वह पूर्व में भारत का हिस्सा था। ऐसा नहीं किया गया। निक्सन के खिलाफ आरोप तय हो गये और महाभियोग और गिरफ्तारी से बचाव के लिए उपराष्ट्रपति को सत्ता सौंपी और क्षमा याचना की। इसके बाद उनको माफी मिल गयी।
निक्सन सत्ता में रहकर भ्रष्टाचार करने वाले पहले राष्ट्रपति नहीं थे। इससे पहले का इतिहास भी जानना जरूरी है। 1947 को भारत को दो भागों में विभाजित किया गया। इसकी जानकारी तत्कालीन राष्ट्रपति हैरी एस ट्रयूमैन को थी। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास किया। नतीजा यह हुआ कि उनको इस्तीफा देना पड़ा।
इसी तरह से 1961 का चीन युद्ध हुआ। उस समय भी अमेरिका भारत की मदद के लिए नहीं आया। लिंडन बी जॉनसन को इस्तीफा देना पड़ा। उनके खिलाफ भी कार्यवाही हुई और क्षमा याचना के माध्यम से वे भी बच गये।
इस तरह से समझा जा सकता कि भारत का महत्व अमेरिका की राजनीति में कितना है।
अगर यह तीनों ही राष्ट्रपति अपनी भूमिका को ईमानदारी से निभाते तो भारत-पाक का विभाजन, चीन का हमला और बांग्लादेश की आजादी को रोका जा सकता था। लेकिन ब्रिटेन यहां पर हावी हो गया।
राजनीतिक का अगला पड़ाव देखिये कि 2010 में डॉ. मनमोहनसिंह की सरकार के खिलाफ आंदोलन आरंभ हुआ। श्रीगंगानगर में एक सिपाही अनिल गोदारा अपने एसपी रुपिन्द्र सिंघ के खिलाफ बगावत करते हुए धरने पर बैठ गया। जापान में कुछ समय बाद ही सुनामी आ गयी।
मिस्र के राष्ट्रपति हुसनी मुबारक का सत्ता पलट हो गया। अरब क्रांति इसको नाम दिया गया। यह आंदोलन अरब, श्रीगंगानगर, दिल्ली में एक साथ हो रहे थे। दिल्ली में आरएसएस समर्थित अण्णा हजारे मैदान में थे। अरब के मिस्र में आंदोलन के बाद वहां का नाम भी बदल दिया गया।
दिल्ली में डॉ. मनमोहनसिंह की विदाई हो गयी और 2014 से मोदी सरकार चलायी जा रही है। मिस्र में तब से अब्देल फतह अल सिसी की सरकार है। 2011 के बाद वहां पर दो सरकार बदल गयी थीं। उधर 2011-12 में भारतीय सेना के बगावत की भी खबर आयी थी। मेरठ से सेना का एक बड़ा जाब्ता दिल्ली को रवाना हो गया था। दिल्ली को चारों तरफ से घेरने की तैयारी थी। समझा जाता है कि उस समय ही मनमोहनसिंह सरकार को पर्दे के पीछे से सेना चला रही थी और आरएसएस के समर्थन से एक आंदोलन चलाया गया जिससे कांग्रेस की विदाई हो गयी और मोदी-शाह सत्ता में आ गये।
इस दौरान जर्मनी में एंजला मार्केल सत्ता में आ गयी थीं और लगभग 14 साल के शासन उपरांत उनकी विदाई हुई। इस तरह से एक आंदोलन की आवाज कितने देशों में सुनी गयी, यह भी ध्यान देने वाला है।