श्रीगंगानगर। भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना जो 13 मई को रिटायर हो रहे हैं, ने सेवानिवृत्ति से पहले ही स्वयं को सेवानिवृत्त मान लिया और वक्फ बोर्ड के मामले में अपना नाम वापिस ले लिया। इस तरह से उन्होंने अंतरिम आदेश का कार्य नये सीजेआई के लिए छोड़ दिया।
नई दिल्ली की राजनीति में बहुत से ऐसे चेहरे हैं, जो न्यायपालिका के हितों के लिए ऑक्सीजन का काम नहीं करते हैं। वहीं रिटायरमेंट के बाद सुरक्षा की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस के हवाले आ जाती है जो भारत सरकार के गृहमंत्रालय के अधीन है। इस तरह से संजीव खन्ना अकेले ऐसे न्यायाधीश नहीं हैं जो बैकफीट पर आ गये।
सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ वक्फ बोर्ड से संबंधित नये कानून की समीक्षा कर रही थी और अदालत ने अंतरिम फैसला सुनाना था और उसी दिन संजीव खन्ना ने अपना सुनवाई पीठ से वापिस ले लिया।
बहुत से न्यायाधीश हैं जो सरकार विरोधी फैसले के समय स्वयं को अलग कर लेते हैं या संविधान की समीक्षा अपने हितों के अनुसार कर लेते हैं और इस तरह से उनके पास रिटायरमेंट के बाद भी जॉब का अवसर बना रहता है।
इस समाचार के माध्यम से यह नहीं कहा जा रहा कि वे सरकार के पक्ष या विपक्ष के मामले में फैसला सुनाने वाले थे।
सीजेआई जैसा देश का सर्वोच्च नागरिक यह मानता है कि आने वाले वर्षों में फैसला उसके लिए परेशानी का कारण बन सकता है तो कहीं न कहीं भारत की आजादी और उसके बाद तैयार की गयी व्यवस्था को दोषी माना जा सकता है।
पिछले 10 सालों का ही हाल देखा जाये तो अनेक न्यायाधीश रिटायरमेंट के बाद संवैधानिक व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं अर्थात उनको जॉब भी मिला हुआ है और व्यवस्था का लाभ भी मिल रहा है। रंजन गोगई, अरुण कुमार मिश्रा और भी कई नाम हैं, जिनको लाभ मिला है।
अमेरिका का हाल देखा जाये तो वहां पर जिस राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीश को नियुक्त किया जाता है वह दूसरी पार्टी के राष्ट्राध्यक्ष के खिलाफ जाने में संकोच नहीं करता। इस तरह से भारत ही नहीं दुनिया के अन्य देशों में भी न्यायपालिका की व्यवस्थाओं में बदलाव की आवश्यकता है।
न्यायाधीश खन्ना अपना फैसला लिख चुके थे और फिर उन्होंने अपने को बैंच से अलग कर लिया और 13 मई को रिटायरमेंट के दिन भी वे फैसला सुनाने वाले नहीं है क्योंकि उन्होंने फैसला सुरक्षित नहीं रखा है बल्कि स्वयं को बैंच से अलग किया है।