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यूएस का साथ छोड़ा तो नहीं मिलेगा यूरोप को अंतरराष्ट्रीय बाजार में भाव

न्यूयार्क। हालात बदल चुके हैं। इराक और अफगानिस्तान में हजारों लोगों का खून बहाने वाले नाटो के यूरोपीय देश अब मानवता की भलाई के लिए एक मंच पर नहीं आ रहे हैं। इसका सीधा कारण है भ्रष्टाचार। व्यापक स्तर पर हुआ भ्रष्टाचार।
यूरोप गैस और पेट्रोलियम के लिए रूस पर निर्भर था और यूक्रेन युद्ध आरंभ होने पर मास्को पर प्रतिबंध लगाकर भारत से गैस और तेल खरीदा गया। भारत ने यही तेल रूस से सस्ते दामों पर खरीदा था, इस तरह से सस्ते होने का लाभ न केवल भारत के लोगों को मिला और न ही यूरोपीय देशों को।
अगर फ्रांस, ब्रिटेन और ईटली में पिछले तीन सालों के तेल खरीद के आकड़ों को देखा जाये तो बड़ा घोटाला लोगों के सामने आ जायेगा। अगर अमेरिकी रिपोर्ट की मानें तो ६० ट्रिलियन डॉलर का घोटाला पिछले कुछ सालों के भीतर हुआ।
रूस-युक्रेन युद्ध तो नयी सौगात लेकर आया था और अब इस युद्ध को समाप्त करवाने की कोशिशें हो रही हैं ताकि देश-विदेश सभी लोगों को पर्याप्त और सस्ती गैस उपलब्ध हो सके, लेकिन कुछ नेता लोग ऐसा नहीं चाहते हैं।
डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति का कार्यभार संभालने के उपरांत से बिना वेतन के कार्य कर रहे हैं। वहीं उन्होंने सुनीता विलियम्स को अंतरिक्ष से नीचे लाने के लिए अपने निजी खाते से पैसों का भुगतान किया। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि अमेरिका और यूरोप की राजनीति में कितना बड़ा अंतर है। एक ताकतवर राष्ट्रपति वेतन नहीं ले रहे, अंतरिक्ष में गये अपने नागरिकों को लाने के लिए अपनी पॉकेट से लाखों डॉलर खर्च कर दिये।
अफगानिस्तान, ईराक आदि पर हमला करने के लिए सभी नाटो सदस्य एक साथ थे और कहा जा रहा था कि सद्दाम हुसैन एटम बम बना रहा है। जांच की तो पता चला कि एटम बनाने का सामान ही इराक के पास नहीं था। फिर भी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी के फंदे पर लटका दिया।
नाटो के सदस्य देशों की गद्दारी कही जाये तो यह शब्द अतिश्योक्ति नहीं होगा। ईटली शासन को इस बात का गुस्सा है कि जो राशि अमेरिका से धर्म परिवर्तन, धर्म प्रचार और बीमारियों आदि के रिसर्च के लिए आती थी, वह नहीं आयेंगी। यह राशि १.६ ट्रिलियन डॉलर की थी और इसको अब बंद कर दिया गया है।
फ्रांस यूक्रेन को हथियार बेचना चाहता है और इस कारण वह चाहता है कि युद्ध चलता रहे और वह अपने हथियारों की सप्लाई करते रहे। भारत ने भी राफेल विमान खरीदे थे और उस सौदे की दरारें आज भी बहुत कुछ कह रही हैं।
ब्रिटेन राजशाही परिवार कभी नहीं चाहेगा कि जो सच दबाने के लिए उसने अपने खरबों पौंड को खर्च किया है, वह सच दुनिया के सामने फिर से आ जाये। इसी से अनुमान लगया जा सकता है कि राजशाही की सोच आज भी उसी तरह की है जैसे आज से ८० साल पूर्व की थी। उस सोच में बदलाव आने की जानकारी दी जाती है लेकिन ऐसा बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है।
ब्रिटेन, फ्रांस, ईटली का गठबंधन भले ही अमेरिका का साथ छोडऩेके लिए तैयार हो लेकिन इस बात की भी संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि रूस उसके सामने विशाल देश है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। रूस पर दबाव बनाने का काम सिर्फ अमेरिका कर सकता था और अगले चार साल तक अमेरिका कम से कम यूरोप की मदद के लिए आगे आयेगा, इसमें निश्चित रूप से संदेह है। जो देश मानवता की भलाई के लिए काम नहीं कर सकते उनके साथ नाटो जैसे संगठन में रहकर अमेरिका क्या करेगा। उसको भी तुरंत प्रभाव से नाटो से बाहर आने की घोषणा कर देनी चाहिये।

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