पिछले एक साल के भीतर तीन बार शीर्षस्तर की वार्ता के बाद भी अमेरिका और भारत गणराज्यों की सरकारें किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पायी हैं। संयुक्त राज्य की खुफिया एजेंसियों की प्रभारी अधिकारी तुलसी गैबार्ड, उपराष्ट्रपति जेडी वेंस की भी बार वार्ता हो चुकी है।
इस तरह से संवाद कायम रहने के बावजूद किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाना इस बात की ओर इशारा करता है कि एक पक्ष किसी समझौते पर राजी ही नहीं होना चाहता। वह पक्ष भारत का है।
एक पत्रकार के रूप में निर्वासित जीवन व्यतीत करने वाले सतीश बेरी भी चाहते हैं कि सरकार उनकी बात को ध्यान से सुनें। हाल ही में दिल्ली की यात्रा भी की और करीबन 8-9 घंटे दिल्ली में भी रहा। इसके बावजूद कोई वार्ता करने का मानस नहीं रखता था और न ही कोई मानुस आया।
अब अगला सवाल यह है कि अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार कोई वार्ता नहीं करना चाहती तो इससे कोई नुकसान या फायदा वाली बात इस संवाददाता के लिए नहीं है।
सरकार को बस इतना ही चाहिये कि जहां संवाददाता जाने चाहे, उसके लिए एयरपोर्ट के दरवाजे खुले रखे जायें।
सरकार पासपोर्ट बनाकर नहीं दे रही। तीन बार अप्लाई करने के बावजूद पासपोर्ट नहीं बना तो इसका अर्थ यही है कि सरकार की मंशा अलग प्रकार की है।
एक अभीव्यक्ति के दीवाने को इस तरह से निर्वासित जीवन व्यतीत करवाना अच्छी बात तो नहीं कही जा सकती।
यहां तो कश्मीर से भी ज्यादा बुरे हालात वाली खबर बना दी गयी है। कहने को सबकुछ शांत है लेकिन अंदर ही अंदर ज्वाला को जलाया हुआ है।
सरकार पासपोर्ट बनाकर नहीं दे रही, सरकार नहीं चाहती कि संवाददाता बाहर जाये। सरकार को कम से कम यह तो बताना चाहिये कि वह चाहती क्या है? क्या दबाव बनाकर किसी के साथ संबंध बनाये जा सकते हैं। यह तो रेप वाली हालत हो जायेगी।
अगर किसी को रोका जाता है और उसके साथ अप्रिय घटना घटित हो जाती है तो क्या मोदी सरकार इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार है? पिछले कुछ सालों के दौरान जो कुछ हुआ या उससे पहले हुआ, उस बारे भी सरकार को अपनी सफाई पेश करनी चाहिये। अमेरिका में हर साल लाखों बच्चे शिक्षा हासिल करने जाते हैं और ट्रम्प प्रशासन वहां पर उन बच्चों को वापिस भेजने का फैसला कर ले तो कितने लाख बच्चों का भविष्य खराब हो जायेगा, यह भी विचार करना चाहिये।