श्रीगंगानगर। भारत गणराज्य के लोगों को बार-बार तीन शब्दों को पढ़ाया गया, जिसको विविधता, समानता और समावेशन (Diversity, Equity, and Inclusion) जिसको डीईआई भी कहा गया, वह असल में भ्रष्टाचार की एक ऐसी किताब लिख रहे थे, जिसके सामने इतिहास के सभी पन्ने खाली रहने वाले थे।
अमेरिका के राष्ट्रपति रॉबर्ट एफ कनैडी (आरएफके) की 1964 में गोली मारकर ‘हत्या’ कर दी गयी थी। उनके 80 हजार पेज की फाइल को सार्वजनिक किया गया। इसमें विविधता, समानता और समावेशन शब्दों को भी दुनिया के सामने ला दिया।
विविधता, समानता और समावेशन (डीईआई) शब्दों को अलग-अलग नेताओं ने अलग-अलग विषय में पढ़ाया। कांग्रेस ने गरीबी को एक अवस्था बताया, भाजपा ने इसे अभिशाप तो कहा साथ ही इसको विभिन्न जाति और धर्म का उल्लेख करते हुए इसे तार्किंक बनाने का प्रयास किया। यह शब्द केवल कुछ लोग जानते थे। इन शब्दों को जिन लोगों ने समझ लिया उसको अमेरिकी या पश्चिमी देशों की सहायता सूची में डाल दिया जाता था।
अब इस कहानी में मौड़ 90 के दशक के बाद आया जब इन्हीं शब्दों को आधार बनाकर उदारवाद के नाम नया युग आरंभ किया गया। जिंस, सोना-चांदी आदि पर सट्टाबाजी आरंभ कर दी गयी। जिसके पास यह नहीं था, वह भी ऑनलाइन खरीदकर ऑनलाइन ही बेच सकते थे।
बुद्धा दरिया को गंदा किया गया
असल में ये शब्द अलग स्तर पर काम कर रहे थे तो दुनिया के सामने लुधियाना जिले का नाम विशेष रूप से लिया जायेगा क्योंकि बरसाती नदी बुद्धा दरिया के चारों तरफ डाई करने वाले कारखानों को स्थापित कर दिया गया। इन कारखानों से दरिया में रसायन एवं जहरीला पानी डाला जाने लगा और इसका संगम सतलुज दरिया से करवा दिया गया।
एक अंतरराष्ट्रीय महत्व को एक बरसाती नदी से जोडक़र आधे पंजाब और आधे राजस्थान के साथ मिलान करवा दिया गया। शोर मचा तो सफाई के नाम पर हजारों करोड़ का बजट जारी किया गया, वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया।
असल में अमेरिका से डाई शब्द को प्यार करने वालों के लिए ‘आर्थिक भंडारा’ लगा दिया जाता था। लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर राशि तो भारत में ही आ रही थी। इसको धर्म प्रचार, धर्म परिवर्तन आदि के साथ जोड़ दिया जाता था। इस अभियान को चलाने वाले लोग इटली से यहां पर आते थे और यहां स्थानीय लोगों के साथ मिलकर इस राशि का वितरण करते थे।
हावर्ड जैसे संस्थान बनाये गये
अमेरिका में हावर्ड जैसे संस्थान बनाये गये। भारत देश की चर्चा की जाये, जो दिवंगत राष्ट्रपति आरएफके की फाइल में लिखा गया है, उसके अनुसार मीडिया हाउसेज, लेखकों, उपन्यासकारों को भी मालामाल करते हुए यह संस्था बढ़ाने की जिम्मेदारी दी गयी थी। फिलोस्परों की जमात भी इक_ी की गयी। सामाजिक कार्यकर्ता भी भारत में तैयार किये गये। जिस तरह से दिल्ली के जेएनयू में शिक्षा के नाम पर रहने, खाने आदि की व्यवस्था की गयी, उसी तरह से हावर्ड जैसे संस्थानों को भी यही पहचान दी गयी। उनको स्कॉलरशिप के नाम पर फायदा पहुंचाया गया।
अब सबकुछ बंद
डोनाल्ड ट्रम्प के आते ही सबसे पहले प्रहार ही डीईआई पर ही किया गया। विदेशों में जाने वाले ट्रिलियन डॉलर्स की मदद को समाप्त कर दिया गया। अब सभी जगह हा-हाकार मच गया है कि आखिर इतने बड़े धन स्रोत का मार्ग और कहां से खोला जा सकता है। भारत में ही हर साल दो ट्रिलियन डॉलर्स से ज्यादा की राशि आ रही थी। ध्यान रहे कि भारत की अर्थव्यवस्था ही चार ट्रिलियन डॉलर्स के आसपास की है।
अनेक विश्वविद्यालयों बंद होने के कगार पर पहुंच गये हैं। जिन लोगों ने डीइआई के नाम पर आने वाली धनराशि के आधार पर अपने नये संस्थान बनाये थे, वे अब विचारकर रहे हैं कि इसकी पूर्ति कैसे हो सकती है। अगर वे इटली, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों की ओर देखते हैं तो यह सभी मिलकर भी अमेरिका जितनी सहायता राशि उपलब्ध नहीं करवा सकते। अगर यूरोपीय यूनियन टूटती है तो इनके आर्थिक हालात और खराब हो जायेंगे।
ब्रेक्जिट जैसा माहौल तैयार किया
यूरोपीय संघ के सदस्य देश ब्रिटेन ने स्वयं को अलग करने के लिए ब्रेक्जिट जैसा माहौल बनाया। महिला, भारतवंशी को पीएम की कुर्सी पर भी पहुंचाया गया, लेकिन इतना कुछ करने के उपरांत भी कोई लाभ नहीं हुआ। एक वर्चुअल कार्यवाही धरी की धरी रह गयी। यूरोपीय संघ के सामने स्थिति अब न खाया जाये न उगला जाये जैसी हो गयी है। अमेरिका की आर्थिक सहायता बंद होने के बाद नाटो जैसा संगठन भी इतिहास बन सकता है।
अगर इसको संक्षेप में लिखा जाये तो हालात इस प्रकार हो गये हैं कि लोगों के सामने दूसरा विकल्प नहीं बचा है और विदेशों में दी जाने वाली सहायता राशि भी अब बंद होने के कगार पर है। ट्रिलियन डॉलर्स में कोई भी देश मदद करने की स्थिति में नहीं है। यूएसए कर सकता था, उसने अब बंद कर दिया क्योंकि अमेरिका पर भी 35 ट्रिलियन डॉलर्स का कर्जा हो गया था। अब देश बदलेगा, दुनिया बदलेगी का नारा बुलंद हो रहा है।
फ्रांस के सामने चिंताजनक स्थिति
फ्रांस के सामने अब चिंताजनक स्थिति बन गयी है क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति आरएफके फाइल्स को पब्लिक डोमन बना दिया गया है। इसको पढऩे के बाद लोग सैकड़ों हजार लोग सडक़ों पर उतरकर आंदोलन कर रहे हैं और सरकार से हिसाब मांग रहे हैं कि आखिर वे कर क्या रहे थे। यही हालात इटली के भी हो रहे हैं। ब्रिटेन भी आज नहीं तो कल अछूता नहीं रहेगा। लाखों लोग अपनी सरकारों से सवाल कर रहे हैं।