श्रीगंगानगर। अगर हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रथम कार्यकाल की चर्चा करें तो उन्होने हरियाणा में बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा दिया था। इसको एक अरसा बीत गया है। बेटी पढ़ाओ के लिए सरकार योगदान क्या रहा?
सरकार प्रत्येक वर्ष बजट जारी करती है। बजट लगभग 40 लाख करोड़ रुपये के आसपास होता है और इसमें भी सरकार मानती है कि 3 से 4 प्रतिशत तक घाटा होगा अर्थात जितना खर्च किया जाना है, उसके बराबर आय नहीं होने वाली है। यह तब है जब हर प्रकार की सब्सिडी बंद की जा रही है या बंद कर दी गयी है। बजट घाटों की क्षतिपूर्ति के लिए सरकारी उपक्रमोंं को बेचा जाता है।
भारत की आबादी सरकारी आकड़ों के अनुसार करीबन 140 करोड़ है। इसमें आधी आबादी महिलाओं की माने जाये तो 70 करोड़ संख्या पहुंच जाती है। भारत में बेटियों की कुल संख्या कितनी है, इसका अनुमान तो नहीं लगाया जा सकता क्योंकि पांच साल पहले जो जनगणना होनी थी, वह भी नहीं करवायी गयी है। इस कारण बेटियों की संख्या का अनुमान नहीं हो सकता और अनुमान के तौर पर बेटियों की संख्या 30 करोड़ लगायी जा सकती है।
सरकार ने बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा तो दिया किंतु बेटियों को उच्च शिक्षा प्राप्त हो, उसके मानवाधिकार सुरक्षित रहें। उसका बचपन सेफ रहे, इन पर ध्यान नहीं दिया गया और छोटे-छोटे बच्चे लोगों के यहां काम करते हुए मिलते हैं।
इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि परिवार नियोजन के बारे में गांवों तक सरकार पहुंच ही नहीं पायी और हम दो-हमारे दो शहरों तक सीमित होकर रह गया।
बात बेटियों की उच्च शिक्षा की तो सरकार शिक्षा के अधिकार को मजबूत करते हुए एक फंड निर्धारित कर सकती है। 30 करोड़ बेटियों को पढ़ाने के लिए अगर सरकार को हर साल 25-25 हजार करोड़ रुपये खर्च भी करने पड़े तो ज्यादा नहीं होगा।
यह इसलिए लेख है क्योंकि सरकार मानती है कि हम 2047 तक विकसित राष्ट्र हो जायेंगे। कोई गरीब नहीं होगा। सभी कम से कम साक्षर होंगे। सभी के पास अपना मकान होगा और भारतीयों की औसतन आय कम से कम 12 लाख रुपये हो जायेगी।
बजट हमारा 40 लाख करोड़ रुपये के आसपास का होता है और हम विकसित राष्ट्र की कल्पना कर रहे हैं। अगर सरकार 2026 से एक ट्रिलियन डॉलर का बजट जारी करने लगे तो तब जाकर हम 2047 तक 5 ट्रिलियन डॉलर का बजट रखने की स्थिति में होंगे।
इस समय भारत की अर्थव्यवस्था 4 ट्रिलियन डॉलर भी नहीं है। सरकारी आकड़ो के अनुसार हम सभी भारतीय 4 ट्रिलियन कमाते हैं। यह वह आकड़ा है जो सरकार के पास है। ब्लैक या ग्रीन रेवन्यू को देखा जाये तो यह कई लाख करोड़ डॉलर है। यह वह पैसा है जो एक बार किसी की तिजोरी में पहुंच गया तो वापिस नहीं आता।
इस पैसे के माध्यम से राजनीतिक पार्टियां चंदा लेकर चुनाव प्रचार पर खर्च करती हैं। भारत में ब्लैक मनी किन सैक्टर में जाती है, सरकार को इसके बारे में जानकारी है। जितना घरेलू बजट रखा जाता है उससे कहीं ज्यादा धन हवाला के जरिये इधर-उधर होता है।
इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि बैंकिंग सिस्टम में रहकर भी हवाला कारोबार और ब्लैकमनी का धंधा चलता है और प्राइवेट सैक्टर के बैंक इसमें पूरा सहयोग करते हैं। एक पैरलर बैंकिंग भी चलती है और उसको हवाला कारोबार कहा जाता है यह लेन-देन भी प्रतिदिन का कई लाख करोड़ रुपये है।
अगर सरकार अपने मतदाताओं या देशवासियों को स्वास्थ्य, शिक्षा ही प्रदान नहीं कर सकती तो इसको सरकारी तंत्र की असफलता ही कहा जा सकता है।
वर्ष 1993 में हरियाणा के नेता रामविलास शर्मा और अन्य भैरोंसिंह शेखावत का प्रचार करने के लिए आये थे और उन्होंने नारा दिया था, शिक्षा का हाल यह है कि जहां स्कूल है, वहां बच्चे नहीं। जहां बच्चे और स्कूल हैं, वहां टीचर नहीं। जहां टीचर, बच्चे स्कूल हैं वहां पर संसाधन नहीं। इस तरह से शिक्षा की उपस्थिति को उजागर किया गया था। 32 सालों बाद आज भी हालात देखें तो सरकारी स्कूलों के बेहतर नहीं कहे जा सकते। स्कूलों में स्वच्छ जल तक नहीं है।
सरकार जब रक्षा को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए 3 से चार लाख करोड़ रुपये का खर्च करने का प्रयास करती है तो शिक्षा के लिए भी इतना बजट क्यों नहीं जारी किया जा सकता। कम से कम स्कूलों में संसाधन उपलब्ध हों अथवा बच्चों के परिजनों को प्राइवेट सैक्टर में पढ़ाई करवाने के लिए एक राशि ट्रांसपर हो।
बेटियों को पढ़ाना है तो सरकार को अपनी जिम्मेदारी भी निभानी होगी और बेटियों की उच्चतम शिक्षा के लिए नि:शुल्क होनी चाहिये और प्राइवेट सैक्टर के लिए राशि बच्चों को मिलनी चाहिये। अभी सरकार का शिक्षा को बजट करीबन सवा लाख करोड़ रुपये का है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक लाख करोड़ से भी कम है।
वहीं अमेरिका को देखते हैं, जिसके साथ बराबरी का मौका देखते हैं, वहां पर शिक्षा को 1.5 ट्रिलियन डॉलर और स्वास्थ्य को भी ट्रिलियन डॉलर में खर्च डाला जाता है। सरकार वहां पर चिकित्सा, शिक्षा, फूड को अपनी जिम्मेदारी मानती है। यहां पर हम सोशल सिक्योरिटी के नाम पर सडक़ों और गांवों के विकास को शामिल कर रहे हैं।